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पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/१३१

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पांचवां अध्याय

पालन नहीं कर सकती हैं क्योंकि इच्छापूर्वक किये हुवे मुआहिदों को भी छल या कभी २ केवल भूल या ग़लत सूचना की बिना पर रद कर देती हैं। अस्तु।

दण्ड देने की न्याय-युक्तता को मान लेने पर भी यह बात बड़ी विवादग्रस्त रहती है कि जुर्म के लिये कितना दण्ड देना उचित है। न्याय के आरम्भिक तथा स्वाभाविक भाव को कोई नियम इतना प्रबल नहीं मालूम पड़ता जितना यह नियम---कि आंख आंख के लिये और दांत दांत के लिये। यहूदियों तया मुसल्मानों के क़ानून के इस सिद्धान्त को यूरुप ने अमली उसूल मानना साधारणतया छोड़ दिया है। किन्तु मुझे सन्देह है कि बहुत से मनुष्य दिल में इस बात को पसन्द करते हैं। संयोगवश जब किसी मुजरिम को इस ही परिमाण में मिलता तो जन साधारण सन्तुष्ट होते हैं। इससे पता चलता है कि इस प्रकार के दण्ड का भाव कितना प्राकृतिक या स्वाभाविक हैं। कुछ आदमियों का विचार है कि जुर्म के अनुसार ही दण्ड देना उचित है अर्थात मुजरिम को उसके नैतिक अपराध ( Moral guilt ) के अनुसार दण्ड मिलना चाहिये। नैतिक अपराध नापने का उनका पैमाना चाहे कुछ भी हो, ये लोगः इस बात का विचार नहीं करते कि किसी जुर्म को करने से रोक के लिये कितने दण्ड की आवश्यकता है। दूसरे मनुष्यों का कहना है कि दण्ड देते समय केवल इस ही बात को ध्यान में रखना चाहिये कि कितना दण्ड देना चाहिये जिस से फिर ऐसा जुर्म न हो। इन लोगों का कहना है कि किसी मनुष्य का चाहे कुछ ही अपराध क्यों न हो उसको इतना दण्ड देना उचित है कि जिससे वह मनुष्य