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पांचवां अध्याय

इस बात की आवश्यकता रहती है कि दूसरे मनुष्य उसको हानि न पहुंचावें। इस कारण वे आचार विषयक नियम, जो प्रत्यक्ष रूप में प्रत्येक मनुष्य को दूसरे मनुष्यों द्वारा हानि पहुंचाये जाने से बचाते हैं तथा परोक्ष रीति पर प्रत्येक मनुष्य को केवल अपने ही लाभ का ध्यान रखने से रोकते हैं, ऐसे नियम होते हैं जिनको प्रत्येक मनुष्य दिल से चाहता है और इसमें अपना भला समझता है कि इन नियमों का प्रचार करे तथा अपने वचनों तथा कार्यों द्वारा इन नियमों का दूसरे मनुष्यों से पालन कराने का प्रयत्न करे। नियमों का पालन करने से ही इस बात की परीक्षा तथा निर्णय होता है कि कोई मनुष्य मनुष्य-समाज का सभ्य होने योग्य है या नहीं क्योंकि इस ही बात पर इस बात का दारोमदार है कि वह मनुष्य उन मनुष्यों के लिये, जिन से उसका वास्ता पड़ेगा, कष्टप्रद ( Nuisance ) तो नहीं होगा। न्याय-युक्तता की दृष्टि से मान्य बातों में मुख्यतया ये ही आचार-विषयक नियम आते हैं। अन्याय के ख़ास उदाहरण वे हैं जब कोई किसी की चीज़ पर ज़बददस्ती क़्बजा कर लेता है या किसी पर अनुचित बल का प्रयोग करता है। इस उदाहरण से उतर कर वे उदाहरण हैं जब कोई बिना किसी कारण के किसी को वह चीज़ नहीं मिलने देता है जिसका वह अधिकारी है। दोनों दशाओं में एक आदमी को हानि पहुंचती है।

वेही प्रबल उद्देश्य, जो इन आरम्भिक आचार-नियमों के पालन करने की आज्ञा देते हैं, उन मनुष्यों को दण्ड का पात्र ठहराते हैं जो इन नियमों का उल्लंघन करते हैं। चूंकि इन नियमों का उल्लंघन करने वाले मनुष्यों के विपरीत आत्म-रक्षा, दूसरों की रक्षा तथा बदले के भाव जागृत हो जाते हैं, इस