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दूसरा अध्याय

दूसरों के भले का) ऐसी स्थिति है जो यथा संभव दुःखों से मुक्त है तथा गुण तथा परिमाण दोनों की दृष्टि से इतनी अधिक आनन्दमय है जितनी कि हो सकती है। गुण की कसौटी तथा परिमाण के मुकाबले में उस को नापने का नियम यही है कि वही आनन्द अधिक अच्छा है जिस के पक्ष में उन मनुष्यों की सम्मति हो जो अपने ज्ञान तथा निरूपण शक्ति के कारण दोनों की तुलना करने के योग्य हों। उपयोगितावाद के अनुसार मानुषिक कार्यों का यह लक्ष्य होना चाहिये। इस कारण आचार का आदर्श भी यही होना चाहिये अर्थात् आचार से सम्बन्ध रखने वाले नियम ऐसे होने चाहियें जिनके अनुसार चलने से मनुष्य यथा सम्भव अधिक आनन्द प्राप्त कर सकें; यही नहीं बल्कि सारी मनुष्य जाति वरन् यथा सम्भव समग्र ज्ञान-ग्रहणशील सृष्टि यथा सम्भव आनन्दमय स्थिति को प्राप्त हो सके।

इस सिद्धान्त का विरोधी एक और सम्प्रदाय भी है। इस सम्प्रदाय का कहना है कि किसी भी रूप में आनन्द मानुषिक जीवन तथा कार्यों का सविवेक लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि पहिली बात तो यह है कि आनन्द अप्राप्य है। व्यङ्ग के ढंग से यह लोग पूछते हैं, "तुझ को सुखी रहने का क्या अधिकार है?" इस प्रश्न को कुछ तोड़ मरोड़ कर कारलायल (Corlyle) ने पूछा था, "कुछ देर पहिले तुझको अस्तित्व में आने ही का क्या अधिकार था?" इसके बाद वे कहते हैं कि मनुष्य का काम बिना आनन्द के चल सकता है। सारे उच्च आशय मनुष्यों ने इस बात को अनुभव किया है। त्याग का पाठ पढ़े बिना वे उच्च आशय बन ही नहीं सकते थे। इन लोगों के अनुसार