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पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/५१

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दूसरा अध्याय

तथा दूषित या अपूर्ण संस्थायें हैं। संक्षेप यह कि मानुषिक कष्टों के सब बड़े २ कारण अधिकांश में और बहुत से कारण सर्वोश में प्रयत्न करने तथा सचेत रहने से दूर किये जा सकते हैं। हां! इसमें शक नहीं कि ये कष्ट बहुत ही धीरे २ कम होंगे और इन दुश्मनों पर विजय पाने तथा संसार को आदर्श स्थिति पर लाने के लिये अनेकों पीढियों को अपनी आहुति देनी पड़ेगी। किन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयत्न ही में विवेकशील सथा उदार मनुष्यों को इतना आनन्द मिलेगा जिसको अपने वे किसी स्वार्थ के लिये छोड़ने को तय्यार न होंगे।

अब दुसरे आक्षेप पर विचार करना चाहिये। आक्षेपकारियों का कहना है कि बिना सुख के भी काम चल सकता है। निःसंदेह बिना सुख के रहा जा सकता है। हमारे आधुनिक संसार के उन भागों में भी जहां बर्बरता सब से कम है, मनुष्य जाति का १९/२० अंश विवश होकर बिना सुख के जीवन व्यतीत कर रहा है। बहुधा महापुरुष या शहीद लोग किसी ऐसी चीज़ के लिये, जिसको वे अपने व्यक्तिगत सुख से अधिक मूल्यवान समझते हैं, जान-बूझ कर सुख को तिलाञ्जलि दे देते हैं। किन्तु वह चीज़, जिसके लिये वह अपने सुख की परवा नहीं करते, दूसरों के सुख या दूसरों के सुख के किसी प्रकार के साधन के अतिरिक्त और क्या है? अपने सुख या सुख पाने के अवसरों को छोड़ देने का साहस रखना बड़ी बात है। किन्तु फिर भी यह आत्म-त्याग किसी उद्देश्य के लिये होना चाहिये। आत्म-त्याग का उद्देश्य आत्म-त्याग ही न होना चाहिये। यदि कहा जाय कि इस आत्म-त्याग का उद्देश्य सुख नहीं है वरन धर्म ( Virtue ) है तो मैं प्रश्न करूंगा कि क्या