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उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद


लीजिये। चाहे हमारा कर्तव्य (Duty) का कुछ भी आदर्श या कसौटी क्यों न हो आन्तरिक कारण सदैव एक ही है। वह प्रान्तरिक कारण यह है कि हमारे ही मस्तिष्क में एक प्रकार की भावना है। कर्तव्य-पथ से विचलित होने पर कम या अधिक कष्ट होता है। उचित विकाश-प्राप्त तथा सदाचारी मनुष्यों में यह भावना इतनी प्रबल होती है कि विशेष दशाओं में उनको कर्तव्य-पथ से विचलित होना असम्भव हो जाता है। यह भावना ही, जब स्वार्थ भाव से रहित होकर अर्थात् निष्कामरूप से कर्तव्य का विचार करती है, अन्त:करण का सार है। निस्सन्देह अन्त:करण की बनावट बड़ी पेचीदा है। सहानुभूति, प्रेम, भय, धार्मिक विचार, बचपन तथा बीते हुवे जीवन की याद, आत्म-सम्मान, दूसरों का मान करने की इच्छा और कभी कभी आत्म-पतन (Selfabasement) भी इन सब बातों का प्रभाव अन्त:करण पर पड़ता है। अन्तःकरण कैसे बना है? यह प्रश्न बड़ा जटिल है। किन्तु इस विषय में हमारे चाहे कुछ भी विचार क्यों न हो यह बात निर्विवाद है कि अन्तःकरण ऐसे कामों को करने से, जो हमारे उस आदर्श के जिसको हमने ठीक मान रक्खा है विरुद्ध हैं रोकता है तथा अन्तःकरण की बात न मानने से एक प्रकार की वेदना होती है।

इस कारण सारे सदाचारों की अन्तिम सनद (Sanction) वाह्य प्रयोजनों को छोड़कर हमारे ही मस्तिष्क की एक आत्मगत Subjective) भावना है। जिन लोगों का आदर्श उपयोगिता है उनको इस प्रश्न का उत्तर देने में, कि इस सिद्धान्त की सनद क्या है, किसी प्रकार की अड़चन नहीं होनी चाहिये। हम उत्तर दे सकते हैं मनुष्य जाति की