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तीसरा अध्याय


बहुधा प्रश्न करते हैं, "क्या मुझे अपनी अन्तरात्मा का आदेश मानना चाहिये?" यदि वे मनुष्य भी, जिनकी अन्तरात्मा इतनी कमज़ोर पड़ गई है कि ऐसा प्रश्न उठाते हैं, इस प्रश्न का उत्तर 'हां' में देते हैं और अपने कर्तव्य का पालन करते हैं तो इसका कारण उनका इन्द्रियातीत सिद्धान्त (Transcendental Theory) में निश्वास नहीं है वरन् इसकी वजह यह है कि वे वाह्य कारणों से जिनका विवेचन किया जा चुका है ऐसा करना ठीक समझते हैं।

इस समय इस बात का निर्णय करना आवश्यक नहीं है कि कर्तव्य की भावना नैसर्गिक है या कृत्रिम। नैसर्गिक मानने की दशा में प्रश्न उठता है कि कुदरती तौर से इस भावना का सम्बन्ध किन किन बातों से है?

नैसर्गिक मानने वाले तत्त्वज्ञानी इस विषय पर एकमत हैं कि नैसर्गिक भाव का संबंध प्राचार विषयक सिद्धान्तों ही से होता है, एतद् सम्बन्धी छोटी छोटी बातों से नहीं। यदि कोई भी भाव नैसर्गिक होता है तो इस बात की पुष्टि में कोई कारण नहीं दिया जा सकता कि वह नैमगिर्क भाव दूसरों के सुख दुःख के सम्बन्ध में नहीं हो सकता। यदि आचार विषयक किसी सिद्धान्त को मानने की प्रेरणा नैमर्गिक हो सकती है तो वह इसी सिद्धान्त की अर्थात दूसरों के दुःख का विचार रखने ही की हो सकती है। यदि नैसर्गिक आचार-नीति आचार शास्त्र की उस ही बात को बताने लगे जिस को उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र मानता है, तो फिर इन दोनों में आगे कुछ भी झगड़ा नहीं रहेगा। किन्तु मौजूदा हालत में भी, यद्यपि नैमर्गिक आचार-शास्त्री दूसरे मनुष्यों के सुख दुःख का विचार रखने की भावना ही को