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पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/७६

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उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद


एक मात्र नैसर्गिक भावना नहीं मानते हैं किन्तु फिर भी इस प्रकार की भावना को अर्थात् दूसरों के सुख दु:ख के विचार को एक नैसर्गिक भावना अवश्य मानते हैं। वे एक मत होकर कहते हैं कि आचारयुक्त अधिकांश कार्यों में दूमरों के लाभ ही का ख्याल रहता है। इस कारण नैतिक कर्तव्य की उत्पत्ति अतीतात्मक मानने के विश्वास से यदि आन्तरिक प्रमाणिकता को किसी प्रकार की ओर अधिक पुष्टि मिलती है तो मेरे विचार में उपयोगितात्मक सिद्धान्त को भी इस का लाभ पहुंच रहा है।

इसके विपरीत यदि नैतिक भावनायें नैसर्गिक न हों वरन् अर्जिन हों, जैसा कि मेरा भी विश्वास है, तो भी अर्जित होने के कारण से इन भावनाओं को कम स्वाभाविक नहीं समझना चाहिये। मनुष्य के लिये बोलना, तर्क करना, शहर बनाना तथा ज़मीन जोतना बोना स्वाभाविक हैं, यद्यपि ये सब शक्तियां अर्जित हैं। इन अर्जित शक्तियों के समान नैतिक भावना भी, हमारी प्रकृति का अंग नहीं है, किन्तु इनके समान ही हमारी प्रकृति से स्वाभाविकतया उत्पन्न होती है तथा इन शक्तियों के समान ही, किन्तु कुछ कम अंश में, स्वतः उत्पन्न होकर संस्कृति द्वारा बहुत कुछ विकसित की जा सकती है। अभाग्यवश बाह्य कारणों का काफी प्रभाव पड़ने से तथा प्रारंभिक संस्कारों की वजह से नैतिक भावना प्रत्येक दिशा में मुड़ सकती है। अत: उन प्रभावों के द्वाग नैतिक शक्ति को इतना मज़बूत बनाया जा सकता है कि अन्तःकरण के समान ही यह शक्ति मनुष्य के मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य जमा सकती है। मानुषिक प्रकृति में उपयोगितात्मक सिद्धान्त का भाव नैसर्गिक न होने पर भी इस सिद्धान्त का भाव उत्पन्न तथा विकसित कराया जा