से विश्वसनीय नहीं है। ऐसी दशा में हम किस प्रकार से ऐसी कमज़ोर आकांक्षा को दृढ़ बना सकते हैं? जहां पर नेक होने की आकांक्षा यथेष्ट रूप में नहीं हैं वहां पर इस प्रकार की आकांक्षा को किस प्रकार उत्पन्न या जागृत किया जा सकता है? केवल इसी प्रकार कि ऐसे मनुष्य के दिल में नेकी की इच्छा पैदा कराई जाय। इस बात का प्रयत्न किया जाय कि वह नेकी को सुखद तथा उसके प्रभाव को दुखद समझे। उसके ज़हन में यह बात जमा दी जाय कि सुखद तथा ठीक काम करने का और दुखद तथा गलत काम करने का अभेद सम्बन्ध है। उसको यह बात पूर्ण--रूप से अनुभव करादी जाय की नेक काम करने से स्वभावतया सुख होता है तथा बुरे काम करने से दुःख होता है यह सम्भव है कि इस तरह नेकी की इस प्रकार की आकांक्षा उत्पन्न हो जाय, जिसके एक बार जड़ जमा लेने पर,आदमी फिर बिना सुख दुःख का विचार किये हुवे काम करने लगे। आकांक्षा इच्छा का बच्चा है। इच्छा की सीमा से निकल कर आकांक्षा अभ्यास ही की सीमा में आती है। अभ्यास अर्थात् आदत ही के कारण हमारी भावनाओं तथा आचरणों-दोनों-में निश्चयता आती है। यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य परस्पर एक दूसरे की भावनाओं तथा आचरणों पर भरोसा रक्खें तथा प्रत्येक मनुष्य में भी अपनी भावनाओं तथा आचरणों पर भरोसा रखने की क्षमता होनी चाहिये। इस कारण ठीक करने की आकांक्षा को बढ़ाते २ अभ्यास अर्थात् पादत की दशा को पहुंचा देना चाहिये। दूसरे शब्दों में आकांक्षा की यह दशा इष्ट ( Good ) का एक साधन है असली इष्ट नहीं है। इस कारण आकांक्षा की ग्रह दशा इस सिद्धान्त का विरोध नहीं करती कि मनुष्यों
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