पृष्ठ:उपहार.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४


पत्र २ शान्ति-सरोवर १०३१ मेरे सर्वस्व! उस दिन पत्र भेजकर कई दिनों तक उत्तर की प्रतीक्षा करती रही किन्तु श्राज तक भाप का एक भी पत्र नहीं मिला उत्सुक नेत्रों से रोज पोस्टमैन की राह देखती हा पहाता है और मेरे दरवाजे की तरफ विना ही मुडे हुए चला जाता है। सपके पास चिहिया पाती हैं परन्तु मेरे पत्थर के देवता! आपन पसीजे नापके पन एकभी नथापनजाने कितने तरह के विचार आपके दिमाग में आते और जाते होंगे, और थाप न जाने क्या क्या सोच रहे होंगे। कदाचित आप सोचते हों कि में पडी अकृतज्ञ, मूर्खा और अभिमानिनी है, जिन लोगों ने मेरे साथ इतनी भलाई की, मुझे सर नाखो पर रक्या उन्हीं के साथ मैं पृतनता कर रही है। यही है न ? किन्तु में क्या करू ? मैं परवश ह । पन में कुछ लिख नहीं सकती। यदि आप कभी मुझसे मिलने का कष्ट करेंगे, अपने चरणों के दर्शन का सौभाग्य देंगे, तब मैं अापके चरणों पर सर रखकर आपको समझा दूगी-श्राप को बतला दूगी कि में अपराधिनी नहीं है तब आप जान सकेंगे कि में कितनी विवश और कितनी निरुपाय है।नाराज तो उसी स हुअा जाता है जा नाराजी सह सके । समय पाकर चरणों पर सर रखकर अपने अपराधों को क्षमा करवा सके। किन्तु श्राप नाराज हैं ? मुझसे ! जो न जाने कितने मील की दूरी पर है। जो हर प्रकार से विश है, जिसे आपको छूने तक का अधिकार नहीं जो केवल आपकी कृपा- दृष्टि की भिखारिणी है। नाह। यदि श्राप मेरी विवशता का कुछ भी अनुभव करते?