पृष्ठ:उपहार.djvu/१०१

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आप मुझ से हंस कर यात करते हैं, मैं हंस देतो है, अपने को धन्य समझती है। कल से श्राप मुझ से बात ही न करना चाहें तो मैं श्रापका क्या कर सकती हूं? मुझे क्या अधिकार है सिवा इसके कि कलेजे पर पत्थर रखकर, सय चुपचाप सह लूं। मैं खुल कर रो भी तो नहीं सकती, मुझे इतना भी तो अधिकार नहीं है। श्राप ने नाराज होकर पत्र लिखना बंद कर दिया है, फल यदि आपको मेरी शक्ल से भी नफरत हो जाय तो भला सिवा रोने के मेरे पास और क्या यच रहेगा। मुझ सरीखी तो आपके घर चार दासियां होगी। किन्तु मेरा दुनिया में कौन है ? मैं तो घर-बाहर की ठुकराई हुई अभागिनी अयला हूं। आपने दया करके मुझे सम्मान, श्रादर और अपने हृदय में श्राश्रय दिया है। उसे इस निर्दयता से न छीनिये । एक बार मुझसे मिल लोजिए। इसके बाद जैसी श्रापकी धारणा हो वैसा कीजिये । श्राप मुझे जिस दंडकी अधिकारिणी समझगे मैं उसे सहने के लिए तैपार हैं। यदि थाप मुझे अपने चरणों से दूर कर देंगे तब भी मैं श्रापकी ही रहूंगी। समाज की आँखों में नहीं, किन्तु अपनी और परमात्मा की आँखों में! श्राप मुझे भले ही अपनी न समझे, परन्तु मैं तो आजीवन आपको देवता की तरह पूजती रहूंगी। मेरा श्रटल विश्वास है कि थाप सबके होने के बाद, थोड़े से मेरे भी हैं। कभी साल-छ महीने में मिनट दो मिनट के लिए ही सही, मुझे भी श्राप के चरणों की सेवा करने का अधिकार है। उत्तर की प्रतीक्षा में श्रभागिनी-प्रमीला 1.3