पृष्ठ:उपहार.djvu/१४५

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११२ भर यहीं रहूंगा। बड़े सबेरे से उठकर अापकी अंगूठी ढूंढ कर आपको दे पाऊंगा'! यस श्राप मुझे अपना पता भर बतला दें। पहिले तो यह कुछ झिझकी। सिर से पैर तक उसने एक बार मुझे देखा, फिर न जाने क्या सोच कर घोली- "मेरा नाम जांगना है मैं पं०"...... पास की दूसरी युवती ने उसके अधूरे वाक्य को पूरा किया- "पं० नवलकिशोर जी की स्त्री हैं" वृजर्जागना फिर योल उठी- मेरा मकान नं० १५५ सिविल साइन में है। 'वृजांगना' नाम सुनते ही मैं चोंक सा पड़ा । 'वृजांगना" क्या वही 'वृजांगना' जिसके विषय में मै बहुत कुछ सुन चुका हूं। वही-वही चरित्रभमा 'वृजांगना' हे ईश्वर ! मैं सिहर उठा। मैं तो उसे देखना भी न चाहता था। किन्तु अय क्या करता? उसकी अंगूठी दंड देने का वचन दे चुका था। ओर वचन देने के बाद, पीछे हटना मैं ने सीखा ही न था । अतएव भव मुनि या कोई साधन न देखकर मैं चुप ही रहा। पास ही खड़ी हुई दूसरी युवती ने प्रश्न किया- "श्राप रात भर यहीं रहेंगे क्या घर न जाय गे"? मेरे मुंह से अचानक निकल गया- "घर ? मेरा घर कहां है? जहां जाऊं? यह यातन जाने किस धुन में मैं कह तो गया किन्तु, कहने के साथ ही मुझे अफसोस भी दुना कि नासिर यह बात दून से मैंने क्यों कही ? मैं विना घर का ? या घर से यहुत विरक,