पृष्ठ:उपहार.djvu/१४६

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पह इन स्त्रियों के प्रति प्रगट करके, मैंने क्या इसे किसी प्रकार की सहानुभूति पाने की प्राशा की थी ? किन्तु यहुत टटोलने पर भी अपने हृदय में, उन स्त्रियों से किसी प्रकार की सहानुभूति प्राप्त करने की लालसामुझे न मिली। श्रयानक इसी समय कहीं से मन्दाकिनी भाकर बोल उठी- "श्रोहो! योगेश भैय्या! तुम चिना घर के कर से हो गये ? अच्छी बात है ! मैं आकर भाभी से पूछूगी फि क्या भैय्या को घर से निकाल दिया है ?" मन्दाकिनो को यात का कुछ उत्तरन देकर मैंने दृढ़ और गंभीर स्वर में प्रजांगना से कहा- "मैंने श्राप से भी कहा न कि मैं श्राप की अंगूठी कल सवेरे टुंद कर दे दूंगा और उस अंगूटो के लिए मैं रात भर यहाँ रहँगा मी! यदि श्राप को मेरी बात पर विश्वास हो तो श्राप निश्चिन्त होकर घर जाइए। अंगूठी आपको सबेरे मिल जायगो"। घजांगना ने निश्चिन्तता की सांस ली। इस समय यह अधिक सन्तुष्ट जान पड़ती थी क्योंकि मुझे मन्दाकिनी भी पहिचानती थी। मन्दाकिनी फिर चोली "योगेश भैया ! तुम्हारे दृढ़ निश्चयी स्वभाव को कौन नहीं जानता ? तुमने जव ढूंद देने की जिम्मेदारी ली है तब पिरजो भाभी की अंगूठी मिले चिना न रहेगी। प्रजांगना ने फिर मुझ पर एफ विनय-पूर्ण दृष्टि डाली, और वह उन सय खियों के साथ चली गई। उस ,8