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११६ 1 जाता। उनके श्राग्रह और विशेष कर वजांगना के प्रेम पूर्ण अनुरोध को टालने की मुझ में शक्ति न थी। विवश हो कर मुझे उनके साथ फिर आना पड़ता।देवी बजांगना और साधु- प्रकृति नवलकिशोर मेरे इन कुत्सित मनोभावों से परिचित नथे। मेरी दानवी प्रवृत्तियां स्तिनी भीषण, स्तिनी भयंकर और कितनी प्ररत हैं, मैं स्वयं भी तो न जानता था। परन्तु उन्हें कुचलने के लिए उनमे मुक्ति पाने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था, मैंने सब कुछ किया। साल भर बाद- वही चैतो पूर्णिमा थी और यही संध्या का समय, वही मन को फिसलाने वाली चांदनी रात, और थी वही वासन्ती हवा, श्राज फिर में बहुत उद्विस था। न जाने पयाँ किसी मिन दा भी साथ न मिला और मैं घूमता हुश्रा कम्पनी चाग के उसी कोने में पहुच गया। मेरी चिर परिचित बेंच कदाचित् मेरी हो प्रतोक्षा कर रही थी। में उस पर गिर सा पड़ा और क्षण भर के लिये मैंने उसी शान्ति का अनुभव दिया जो यालक माता की गोद में पाता है। क्षण भर बाद ही, साल भर पहले की एक एक स्मृति सिनेमा के चिर पट की तरह मेरी श्राग्यों के सामने फिरने लगी। इसी जगह हरी दूब पर व्याकुलता से मेरा लेटना, घूमती हुई रमणियों का माना, अंगूठी का गिरना, और फिर उसकी खाज । मुझे याद आया, उस दिन भी मैं बहुत विम्ल था- संसार से विरक्त और जोधन से थका हुआ माज में बहुत अंशो में संसार में अनुरक्त था, परन्तु शान्ति जीवन में आज भी न थी। साल भर पहले को उस शान्ति से शाज की अशान्ति फहीं अधिक उद्वेगपूर्ण, भीषण और प्रलयंकरी थी।