पृष्ठ:उपहार.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११८

धिकारता था। नवलकिशोर को भेया और ग्रजागना को भाभी कहा करता था। सचमुच ही उनके प्रति मेरे हृदय में यही पूज्य भाव थे । एकान्त में इस दलील को सामने रख कर मैंने अपनी इन राक्षसी प्रवृत्तियों को कुचल डालने का न जान क्तिना प्रयत्न क्यिा ।म चरित्रहीन न था, पराई स्त्री-विवाहिता सी मेरे लिये देवी की तरह पूर और आदर की वस्तु थी। ब्रजागना को भी में इसी पूय ए से देखा करता था। उसके लिए मेरे हृदय में व पवित्र भोर आदर के भाव थे, फिन्तु यह पनि भाय उसी समय तक रिक सकते जब तक यह मरे सामने न होती। जागना जैसे ही मेरे सामने पानी मुझ पर म जान कहाँ या राक्षस सवार हो जाता ? में एक ज्ञानहीन पशु से भी गया बीता बन जाता। में अपनी ही ग्रामों में बड़ा पतित चने लगता । पर मेरा हदय मेरे कावू स बाहर था। मेरी दोनों प्रतियों काथापस में युद्ध सा छिडा रहता ।कमी २ ता मैं घडा ही उद्विग्न और व्यषित साहा जाता। मेरी इस विचलित श्रवस्था को नजागना और नयलकिशोर देखते परन्तु मेरी मानसिक स्थिति को वह क्या समझ सकते थे ? वे अपन प्रयन भर सदा हर प्रकार से मुझे खुश रसने की ही फिकर में रहते। उनका व्यरहार मेरे पति मधुरतर और प्रेमपूर्ण हो जाता था। अपनी इस दानवी प्रवृत्ति को हर प्रकार स दयानेकेलिए मेंन कई वार निश्चय किया कि मैं उन के घर ही न जाया करूँ और इस उपाय म मैं कई बार कई अंशों तक सफल भी हुश्रा । परन्तु मेरे ही न जाने से क्या हो सकता था? कई बार ऐसा हुश्रा जब कि में सुबह से शाम तक उन के घर नहीं गया तव प्राय ब्रजांगना या नवलकिशोर अथवा कभी कभी दोनों ही मेरे घर पहुच जाते; मेरा किया-पराया निश्चय मिट्टी में मिल