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रचनाओं के लिए तकाजे-पर-तकाजे आरम्भ कर दिए। अनेक सहृदय पाठकों ने परिचय प्राप्त करने के लिए उसको पत्र लिखे। परिणाम यह हुआ कि शीला के पास आनेवाली डाक का परिमाण बहुत बढ़ गया। उसका छोटा सा घर ऐसा मालूम होता, जैसे किसी समाचार-पत्र का आफिस हो । वह बेचारी इस असीम सहानुभूति के भार से दब-सी गई। पत्र-प्रेषक उससे उत्तर की आशा करते थे, और यह आशा स्वाभाधिक भी थी। परन्तु वह उत्तर किस-किस को देती ? आखिर पत्र भेजने में भी तो खर्च लगता ही है, और वह तो निर्धन थी।

शीला के पति जेल में थे । सत्याग्रह-संग्राम प्रारंभ होते ही वह गिरफ्तार करके साल भर के लिए श्रीकृष्ण- मंदिर में बन्द कर दिए गए थे, साथ ही २००) जुर्माना भी हुआ था ! इन सब कठिनाइयों को वह धैर्यपूर्वक सह रही थी। फिर भी वह बहुत परेशान-सी रहा करती थी।

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मैं शीला को बहुत दिनों से जानता था, जानता ही न था, वह सगी बहिन की तरह मुझ पर स्नेह करती थी और मैं अपनी ही बहिन की तरह उसका आदर करता था। इघर कुछ निजी झंझटों के कारण मैं बहुत दिनों से शीला के घर न जा सका था। एक दिन शाम को पोस्टमैन ने मुझे एक लिफ़ाफ़ा दिया। खोलकर देखा, तो पत्र मेरा नहीं, किन्तु शीला का था। 'कल्पलता' मासिक पत्रिका के सम्पादक महोदय ने बड़े आग्रह के साथ शीला को कोई रचना भेजने के लिए लिखा था। वह पत्रिका का कोई विशेषांक निकाल रहे थे। पत्र समाप्त करते-करते उन्होंने यह भी लिखा था कि