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मैंने पूछा-'कितनी बाकी है !'

'कहानी तो पूरी हो गई, पर इसके साथ उन्हें एक पत्र भी तो लिखना पड़ेगा'-शीला ने कहा । मैंने उस कहानी को लेने के लिये हाथ बढ़ाया, पर वह मुझे बीच में ही रोक कर मुस्कुराती हुई बोली-'लो पहले इसे तो पढ़ लो फिर कहानी पढ़ना ।"-कहते हुए उसने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया। लिफ़ाफ़े पर पता शीला का और पत्र मेरा था। 'कल्पलता' के सम्पादक महोदय ने मुझसे भी शोला की कोई रचना भिजवाने के लिए आग्रह किया था, साथ ही उलहमा भी दिया था, कि उन्होंने शीला को कई पत्र लिखे, किन्तु उसने एक का भी उत्तर नहीं दिया, और अन्त में बहुत क्षुब्ध होकर उन्होंने लिखा था, 'इस चढ़े दिमाग का कुछ ठिकाना भी है!' मैंने पत्र समाप्त करके शीला की ओर देखा वह मुस्कुरा रही थी, किन्तु उस मुस्कुराहट में ही उसकी आंतरिक वेदना छिपी थी। उसकी असमर्थता की सीमा निहित थी। कदाचित् उन्हें छिपाने के ही लिए प्रहरी की तरह मुस्कुराहट उसके ओठों पर खेल रही थी। कुछ क्षण तक चुप रहने के बाद मैंने पूछा-क्या लिखदूँ सम्पादकजी को?

'लिखोगे क्या? उन्हें यह कहानी भेज दो। उसने उसी मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया।

'पर उन्हें ऐसा न लिखना चाहिये था।' मैंने सिर नीचा किये हुए ही कहा।

"उन्होंने कुछ अनुचित तो लिखा नहीं।'-उसने गंभीर होकर कहा 'कई पत्रों का लगातार उत्तर न पाने पर लोगों की यह धारणा हो जाना अस्वाभाविक नहीं है। उनकी जगह