बात का स्मरण ही न रहा। उनके मित्रों और छाया ने एक- दो बार उनसे इस पद के लिए प्रयत्न करने के लिए कहा भी, किन्तु उनका यह उत्तर सुनकर "हाया पयो मुझे अपने पास से दूर भगा देना चाहती हो" छाया चुप हो गई। उसे अधिक कहने का साहस न हुअा। यह प्रमोद के भावुक स्वभाव से भली भांति परिचित थी। छोटी २ साधारण वातों का भी उनके हृदय पर बड़ा गहरा प्रभाव पडता था । यौवन-जनित उन्माद ओर लालसाएं चिरस्थायी नहीं होती । इस उन्माद के नशे में जिसे हम प्रेम का नाम दे डालते हैं। यह वास्तव में प्रेम नहीं, किन्तु वासनाओं की प्यासमान है। लगातार छै महीने तक छाया के साथ रहकर श्रय प्रमोद को श्राखों में भी छाया के प्रेम और सॉन्दर्य का यह महत्व न रह गया था जो पहिले था। श्रव वह नशा कहा था? उन्हें अब अपने कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान था, उन्हें अब ऐसा जान पड़ता कि जैसे उन्होंने कोई बहुत बडी भूल कर डाली है । आर्थिक कठिनाइया भी उन्हें पद पद पर शूल को तरह कष्ट पहुचा रही थीं। इसके अतिरिक्त माता पिता के स्नेह का प्रभाव उन्हें अब बहुत खटक रहा था। उनका चित्त व्याकुल-सा रहता, चार-यार उस स्नेह की शीतल छाया में दौड फर शान्ति पाने के लिये उनका चित्त चंचल हो उठता। माता पिता के स्नेह में जो शीतलता, ममता का मधुर दुलार और जो एक प्रकार को अनुपम शान्ति मिलती है, यह उन्हें छाया के पास न मिलती । छाया के प्रेम में उन्हें मुख मिलता था पर शान्ति नहीं। स्नेह मिलता पर शीतलता नहीं। श्रानन्द मिलता पर तृप्ति नहीं।
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