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रही है। वह उसे उस रूप में भी देखना चाहता है जब, उत्ताप और मनोवेग वाण से विद्ध होकर, यह उन्मत्त हो उठती है; कराहती और चीत्कार करती है; गरजती और आक्रमणकारी पर टूट पड़ती है। मानव प्रकृति का पर्यवेक्षक पाठक भी, इन लेखको से खीझ कर, कह उठता है-- "You will not show nature as it 19 when, stung by Parsion as by a hot iron, it cries cut, rears, and plunges Over your barriers"

हमारे लेखक का आदर्शवाद तो, पात्र के व्यक्त होने के लिए तड़पते मनोविकारों का वरवस गला घोंट देता है। लेखक पात्र को, उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं, अपने सिद्धान्त के अनुसार ही चलाता है। इस प्रकार यह पात्र,स्थतन्तसंकल्प- शक्ति-सम्पन्न,सजोय प्राणी न रहकर, केवल सदाचार सूत्र के सहारे, लेखक के इंगित पर नाचने वाली कठ-पुतली ही बन जाता है। यह हमारे पाप-पुण्यमय जीव-लोक का गुण- दोषयुक्त अपूर्ण मानय न होकर स्वर्ग की निर्दोप, निर्विकार सम्पूर्ण विभूति ही ठहरता है । उसे हम भय, कौतूहल, आदर और श्रद्धा से देखने लगते हैं, परन्तु अपना प्यार, अपनी करुणा, सहानुभूति, घृणा, ईष्या उसे नहीं दे सकते । उसके निष्कलंक चरित्र, उसकी निर्मल आत्मा को देखकर हम आपस में कहने लगते हैं. यह मानव नहीं; मानवता तो अपूर्ण है। यह हम में से एक नहीं, इसे हम, अपना कहकर, गले से नहीं लगा सकते। यह अद्वितीय है, दिव्य है, अद्भुत है, अलौकिक है। चलो, मन्दिर में चलकर हम इसकी मूर्ति को स्थापना करें और उसे पूजें।


  • H A. Talne, D. C L History of English Literature

Translated by H van Lann Vol. II Chap The porelists