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अब लेखिका के पात्र तथा चरित्र-चित्रण को लीजिए। हमारे यहाँ आदर्शवाद की तूती सदा से बोलती आयी है। आज भी उसके हिमायतियों की संख्या भारत में उसी तरह बढ़ रही है जिस तरह हिन्दी में कवियों की। भारत धर्म-प्रधान देश सदा से रहा है। हमारा वर्तमान भी, जिसे हम भारत का राजनीतिक युग कहते हैं, धर्म के प्राबल्य की ही घोषणा करता है। आज भी अपने किसी धार्मिक पर्व में हम जिस संख्या में सम्मिलित होते हैं, उसके शतांश में भी हम कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में नहीं पहुंचते। ऐसे देश के साहित्य में धर्म की प्रधानता होना अनिवार्य है। फलतः हमारे यहाँ के दृश्यकाव्य, श्रुतिकाव्य और कथा-साहित्य, सभी के नायक धर्म-प्राण और धर्म-परायण ही चित्रित किये जाते हैं, या यों कहिए कि हम कट्टर हिन्दुओं की तीव्र धार्मिक प्रवृत्ति हमें आदर्श चरित्र की सृष्टि करने के लिए विवश करती है।[१] हमारी भौतिक भावना केवल गुण, पुण्य और धर्म का पाठ सिखलाने के लिए हम से पापों का आविष्कार कराती है। सदाचार-सरकस के संकुचित और संकीर्ण क्षेत्र में, निर्धारित और नियमित व्यापार सम्पादित करने के लिए, लेखक प्रकृति-सिंहनी को नीति के विद्युत-दण्ड से सदा धमकाता और दबाता रहता है। परन्तु सिंहनी को उसके स्वाभाविक रूप में देखने का इच्छुक दर्शक, यद्यपि उसके इन कष्टसाध्य कार्यों पर तालियाँ बजाता है, फिर भी उससे संतुष्ट नहीं होता। वह जानता है कि उसे अपनी सम्पूर्ण, स्वतन्त्र, स्वाभाविक चेष्टाओं को व्यक्त करने की स्वच्छंदता नहीं मिल


  1. आज भी श्री मैथिलीशरण गुप्त, श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय और श्री श्यामाकान्त पाठक के महाकाव्यों के नायक श्री राम और श्रीकृष्ण ही बने हुए हैं। साकेत, प्रिय-प्रवास, श्याम सुधा ।