चेग और तीव्रता हो प्रदान करते हैं, उसकी गति में विघ्न- बाधा नहीं बनते। वे स्वयं कथा-भाग से कम रोधक यामाही नहीं हैं। लेनिका की उन व्याख्यापूर्ण उक्तियों और सिद्धान्त-धाययों में मानव स्वभाव का विश्लेपण, सत्य के स्वरूप का निदर्शन घड़े सुन्दर ढंग पर हुभ्रा है । एक- दो उदाहरण देखिए-
"यो तो शीशे में अपना मुंह रोन ही देखा जाता है, परन्तु भाः कभी-कमी केवल अपने भाप को ही देखती रह जाती है । गहरे अंधो में पन्द हृदय मी कदाचित् अपना स्वल दर्पण में देसने के रिए मचलने लगता है, माखों से लड़ जाता है और उसकी सौन्दर्य- समाधि को तोड़ देता है।"
x "व्याकुलत्ता मसम्मय को भी सम्भव बनाने की धुन में रहती है।
X सुना है एक समय ऐसा पाता है जर कुरूप-से-गुरूप व्यक्ति भी अपने आप को सुन्दर समझने लगता है।"
(उन्मादिनी]
X "सुख की प्रात्म-विस्मृति तक बाह्य द्यावश्यकतामों की पहुँच x X X
X "प्रिया स्वभावतः सौन्दर्य की पासिका होती है। जो जितनी अधिक सुन्दर होती है उसकी सौन्दयोपासना इतनी ही अधिक बड़ी-पड़ी होती है।"
[सोने की कंठी]
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