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खोल रखा है। जीवन की संध्या बेला में तुम्हें इस प्रकार अपने सम्मुख पाकर मैं अपनी साधना को सफल समझता हूँ। में सुख से मर रहा हूं हीना ! मेरा इससे अधिक और सुखमय अन्त हो ही क्या सकता था। मुझे थोड़ा सा जल दे दो, आह, बड़ी प्यास मालूम होती है।

उपर्युक वाक्यावली अलंकृत और रसात्मक भी है। परन्तु फिर भी उसमें विपाद का वह गाम्भीर्य, वह गोपन, वह संवरण नहीं, जो लेखिका ने कुन्दन के उस एक पाक्य में भर दिया है। वही एक वाक्य कुन्दन की जिस विकल विवशता,सुकुमार करुणा और सुख पुलक को व्यजित कर देता है, उसे यह प्रचुर वाक्य राशि व्यक्त करने में असमर्थ है। नि सन्देह करुणा का सचार दोनों अभिव्यक्तियों से होता है, परन्तु पहले में अगाध सागर की निस्तब्धता ओर गहराई है, दूसरे में घरसाती नदी का उथलापन और उसकी हरहराहट । पहली अभिव्यक्ति अधिक पलापूर्ण, व्यसनात्मक और सुरुचि के अनुकूल है। कला के संसार में आत्म नियंत्रण सदैव गुण माना गया है । कहानी की छोटी-सी वस्ती में तो उसे वरदान का महत्व दिया गया है। यहाँ तो लेखक तरल, सूक्ष्म, कोमलतम एवं व्यंजनात्मक शब्द स्वर-स्पर्श-रग द्वारा धीमे धीमे अपने चित्र को खींचता है। और फिर, इस आत्म-संवृति में भी तो बड़ी गहराई है।

एक उदाहरण और लीजिये । यहाँ लेखिका का वांछित भाष उपेक्षा है। एक दिन शीघ्र ही घर लौटने के प्रस्ताव पर बिनविरत्क, पति प्रमोद छाया से जय उसका कारण पूछता है तय यह विनम्र स्वर में निवेदन करती .