जवानी आई और आई उसीके साथ मेरी कहानी की आशा भी। यो तो शीशे में अपना मुंह रोज ही देखा जाता है परन्तु आँखे कभी कभी केवल अपने को ही देखती रह जाती हैं। गहरे अंधेरे में वन्द हृदय भी कदाचित अपना स्वरूप दर्पण में देखने के लिए मचलने लगता है, आंखों से लड़ जाता है और उसकी सौंदर्य समाधि को तोड़ देता है। मैंने सुना है कि एक समय ऐसा आता है जय कुरूप से कुरूप व्यक्ति भी अपने को सुन्दर समझने लगता है, फिर मैं तो सुन्दरी थी ही।
बचपन में मां मुझे प्यार से 'मेरी सोना' 'मेरी हीरा' 'मेरी चांद' कहा करती थीं । बड़ी होने पर एक दिन कलूटे कुन्दन ने मुझसे लड़ाई में कह दिया कि "हम तुम्हारे सरीखा गोरा गोरा मुंह कहां से लायें?" वेचारा कुन्दन क्या जाने कि उसने इन शब्दों से कौनसा जादू फेंक दिया कि फिर मैं उस से लड़ न सकी इस बात के उत्तर में उसे पत्थर फेंक कर मार न सकी। हां, मैंने अन्दर जाकर दर्पण के सामने पड़ी होकर कुन्दन के मुंह से अपने मुंह की तुलना अवश्य की। सच मुच मेरा मुंह बहुत गोरा था, परन्तु कुन्दन-कुन्दन भी तो काला न था, सांवला था। और मुझे सांवले ही पुरुष अच्छे लगते थे। बचपन में अनेक यार राधा-कृष्ण की कहानी सुनते सुनते मैं भी अपने को राधा-रानी समझने लगी थी। और कृष्ण ? कृष्ण, बहुन तलाश करने पर भी सिवा कुन्दन के और कोई न मिलता । कुन्दन बांसुरी भी यजाता था और सांवला भी था, फिर भला मेरा कृष्ण सिधा कुन्दन के और हो मी कौन सकता था?