सहसा सामने से कपड़ा बेचता हुआ, कुछ कपड़े स्वयं कधे पर धरे हुए कुछ एक नौकर के सिर पर रखवाए हुए मुझे कुन्दन दिखाई पड़ा। विश्वास न हुआ परन्तु आँखे खुली थीं, में सपना नहीं देख रही थी। दौड़ कर मैं नीचे आई और आते ही ख्याल हुआ, कि मेरे पैरों में ता मर्यादा की बेड़ियां पड़ी हैं, मैं कुन्दन के पास दौड़ कर कैसे जाऊंगी। उसके बाद मैंन देखा कि कुन्दन स्वयं ही मेरे यहा के एक नौकर के साथ हमारे अहाते में आ रहा है । बाहरी बरामदे में उसने कपड़े उतार दिए । सास वहीं सोफे पर बैठी था। मैंने उनके बुलाने की प्रतीक्षा न की, चुपचाप आकर साफे के पीछे खड़ी होगई । मेरी सास सामान खरीदने की बड़ी शौकीन थी,हमारे दरवाजे पर से कोई फेरी वाला ऐसा न निकलता था जिससे यह कुछ न कुछ खरीद न लेती हो। आज सास की इस आदत की मैंने मुक्त हृद्य से प्रशसा की । यदि उन्हें सामान खरीदने का इतना शौक न होता तो शायद में इस कपड़ वाले (कुन्दन) को इतने समीप से न देख पाती। मुझे अपने पीछे देखकर वह हँस कर बोली "बहू क्या लेती है, जो कुछ लेना हो अपने मन का पसन्द करले।"बेचारी सास क्या जानती थी कि कपड़ों से अधिक मुझे कपड़े वाला पसंद है। फिर भी उनके आग्रह से मैंने दो शान्तिपुरी साड़ियां ले ली, उन्होंने भी अपने लिये कुछ साड़ियां खरीदी। उसे दाम देकर और नई तरह की साड़ियां लाने के लिए कह कर सास ने उस बिदा किया।
कुन्दन में बड़ा परिवर्तन था। अब वह बहुत दुबला और अधिक सावला होगया था, चेहरे पर यह लालिमा न थी, किन्तु यही मनसि्थता और तेज टपक रहा था जो पहिले