पृष्ठ:उपहार.djvu/५८

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थी और गला रुंधा जा रहा था। प्रयत्न करने पर भी मैं कुन्दन से एक शब्द न कह सकी। कुन्दन ने अपने गरम गरम हाथों को नीचे झुका कर मेरे पैरों को छू लिया और क्षीण स्वर में बोला,"हीना रानी, घर जाओ। तुम्हें कोई यहाँ देख लेगा तो नाहक ही तुम पर कोई आपत्ति न आजाय ? कहीं मेरा यह सुख भी न छिन जाय ? तुम्हारे समीप इस हालत में भी रह कर मैं एक प्रकार का सुख ही पाता हूं"

ठीक इसी समय पति देव ने कोठरी में प्रवेश किया। उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मेरी तरफ देखा, फिर कुछ बोले ।क्या बोले में कुछ समझी नहीं। मैं उसी प्रकार कुन्दन के सिर पर हाथ धरे बैठी रही। मेरी आत्मा ने कहा, मैंने कोई अपराध नहीं किया है, किसी बीमार की शुश्रूपा करना मनुष्य मात्र का धर्म है। फिर मृत्यु की घड़ियों को गिनते हुए, उनकी नज़रों में अपने एक आधित और अपनी आँखों में अपने एक बाल सखा को, यदि मैंने एक घंट पानी पिला दिया तो क्या यह कोई अपराध कर डाला ? किन्तु मैं उसी क्षण कोठरी छोड़ देने के लिए बाध्य कर दी गई। मैं ऊपर आई तो अवश्य परन्तु मेरी अवस्था पागलों की तरह हो गई थी; रह रह कर कुन्दन की क्षण मुखाकृति मेरी आंखों के सामने फिर ने लगी। बार बार ऐसा मालूम होता कि कुन्दन एक घूंट पानी के लिए चिल्ला रहा है । पतिदेव सोए थे मैं भी एक तरफ पड़ी थी। पर मेरी आँखों में नींद कहां? उठी और छज्जे पर बेचैनी से टहलने लगी। बैंगले के पास ही बिजली के खंभे के नीचे मैन कुछ सफेद सफेद सा देखा। एक अज्ञात आशंका से मैं सिहर उठी। ध्यान से देखा वह कुन्दन था।