पृष्ठ:उपहार.djvu/५७

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अत्यंत अस्थिर थी फिर भी किसी से कुछ पूछने का मुझ में साहस न था । अत्यंत उद्विग्नता से मैं बगीचे में इधर उधर टहलने लगी। टहलते टहलते मैं मालियों के काटर्स की तरफ निकल गई। दूर से कुन्दन की कोठरी कई बार देखी थी। आज उस कोठरी के बहुत समीप पहुंच गई थी। कोटरी में प्रकाश तो न था किन्तु अन्दर से कराहने की आवाज़ साफ़र सुनाई पड़ती थी। मैंने ध्यान से सुना, आवाज कुन्दन की थी। अब मैं विल्कुल भूल गई कि मैं किसी इंजीनियर की स्त्री हूं और कुन्दन मेरा माली । तेजी से कदम बढ़ा कर मैं कोटरी में पहुँच गई-विजली का बटन दबाते ही कोठरी में प्रकाश फैल गया और कुन्दन ने घबराकर आँखे खोलदी। मुझे देखते ही इस बीमारी में भी उसकी आँखे चमक उठीं, और यह वही चमक थी जिसे उसकी आँखों में मैंने एक बार नहीं अनेक बार देखा था। मैं उसी की चारपाई पर उसके सिरहाने बैठ गई। तेज बुखार से उसका शरीर जल रहा था। मालूम हुआ कि बुखार तो उसे कई दिनों से आ रहा है किन्तु काम वह फिर भी बराबर करता रहा है। इधर कई दिनों से यह बहुत अशक्त हो गया है और दो दिनों से छाती और पंसलियों में अधिक दर्द होने के कारण वह कोठरी से बाहर नहीं निकल सका। उसकी अवस्था चिन्ताजनक थी। कुछ देर तक ख़ास कर वह फिर बोला-"हीना रानी, तुम आई तो हो, कोई तुम्हें कुछ कहेगा तो नहीं ? पर भय तो आई ही होगी अपने हाथ से एक गिलास पानी पिला दो, बड़ी देर से प्यासा हूं। मैंने मटकी से एक गिलास भर पानी उसे पिलाया और फिर बैठ गई। मैं उसके सिर पर हाथ फेरने लगी । मेरी आँखों से रोकने पर भी झड़ी लगी