सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:उपहार.djvu/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

"पति का प्रेम में पा सकी थी या नहीं, यह में नहीं जानती; पर मैं उनसे डरती बहुत थी। भय का भूत रात-दिन मेरे सिर पर सवार रहता था। उनकी साधारण-सी भाव मंगी भी मुझे कैंपा देने के लिए पर्याप्त थी। वे मुझसे कमी नाराज़ न हुए थे; किन्तु फिर भी उनके समीप मैं सदा यही अनुभव करती कि जैसे मैं बन्दी हूँ और यहाँ ज़बरदस्ती पकड़कर लायी गयी हूँ।"

[उन्मादिनी]

पवित्र ईर्ष्या में विमला को, अपने राखी-चन्द भाई अखिलेश के प्रति, भ्रातृ-भाय प्रदर्शित करने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती; उन्मादिनी में हीना को, अपने बाल-सखा कुन्दन के साथ, सस्य-भाव निवाहने की स्वीकृति नहीं दी आती। परन्तु केवल पनियों को कातर विवशता, हीनावस्था और निरीहतातथा उन पर पतिजनों के अन्यायपूर्ण क्रूर शासन की ओर ही हमारा ध्यान आकर्षित नहीं किया गया; प्रत्युत समस्त स्त्री जाति की सरलता, सुशीलता एवं परवशता का अनुचित लाभ उठाने वाले पुरुष की कटोरता और उसके धृणित आचरण की ओर भी इनमें संकेत किया गया है। अभिषक्षा, नारी-हृदय, सोने की कंठी और अगूटी की खोज में हमें वही देखने को मिलता है। सुशीला के मुंह से, अपने पति के लिए, निकता हुआ वाक्य, "तुम्हीं क्या पुरुष-मार ही कठोर होते है," धास्तव में, इन कहानियों का भी निष्कर्ष कहा जा सकता है।

इस प्रकार क्रूर पुरुष द्वारा पद-दलित नारी-हृदय का दिग्दर्शन कराना ही लेखिफा का उद्देश्य है। साथ ही स्त्रियों का, अपने आचार-विचार, रहन-सहन तथा कार्यव्यवहार में