पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला में जाने, (८४) लघु सौमित्र हुए कुछ विस्मित, कुछ शर्रमाए, कुछ सकुचाए, माँ के बचनो को सुन फिर से चित्र देखने दौडे आए , उत्सुक हो कर उन ने फिर से ललित चित्रपट को अवलोका, कुण्ठित बुद्धि सम्हल जाती हो मानो खा कर कुछ -कुछ धोका । (८५) पर, बोले, "माँ, लगी बोलने तुम भी भाभी की सी बाते, दोनो मिल कर मुझे बनाती हो, जानू मैं ये सब घाते , मेरी शकाओ का कर दो निराकरण तुम, तब ऐसा अस्त व्यस्त आखेटक कही बता दो तब म मान् । (८६) इसके पहले मने देखा कही न ऐसा अजब शिकारी, धन टूटा कावे पे, मानो झोली डाले खडा भिखारी , माँ, तुम कहती हो भैया से मिलती है इसकी कुछ सूरत, है प्रणाम, यदि यह भैया की, भाभी के मन की है मूरत । (८७) क्यो भाभी, क्या इसी रूप में उनका सतत ध्यान धरती हो मेरे अपराजित दादा का यो ही सदा स्मरण करती हो?" "लल्ला तुम जल्पक हो।" लज्जारुणावनता मिला बोली, “पगले, चुप हो तब जननी की यो आदेशागुलिया डोली। ? टक "शिर पाखो पर है तव आज्ञा, किन्तु मुझे, जननी, जतलाओ, इस विचित्र भावाभिव्यक्ति का मुझको तनिक तत्त्व समझायो।" "वत्स, समझ लो, तुम्हे समझना है जो कुछ अपनी भाभी से , बहू, खोल दो लल्ला के हिय-द्वार आज अपनी चाभी से ।"