पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११८

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ऊम्मिला (१०४) इसी अचानक-से प्रवाह का नाम मजु, मृदु ललित कला है, यह प्रवाह-जो बिना नियन्त्रण के सब काल, सदा निकला है, किन्तु कदाचित तुम पूछोगे अन्तिम ध्येय कला का, देवर, तो सामजस्य स्थापन का बना हुआ है कला-कलेवर । (१०५) बहिर्जगत मे, अन्तरतर में निर्मलता का ध्यान रहे नित, तात चरण ने, प्रथम दिवस ही यह शिक्षा दी हम सबके हित, समता-सस्थापन, जीवन का उसी दिशा मे सतताकर्षण- जहाँ जगत्पति का सिहासन-यही कला का अन्तिम दर्शन । (१०६) अब तुम पूछोगे कि तुम्हारे अग्रज का यह कैसा चित्रण ? मैने उनको जैसा पाया, तद्वत् ही है यह चित्राकण , आर्यपुत्र मेरे जीवन के है आदर्श शिकारी, देवर, जो व्रत-पालन को उद्यत हे करके सब सर्वस्व निछावर । (१०७) थोडे से सहवास-काल मे में यह जान सकी हूँ अब तक- कि वे महायोगी, वे इन्द्रिय-जित्, वे गुडाकेश, वे अपलक, यही सुदृढता, यही तुम्हारे अग्रज की भामिनि का निर्णय, मंने उन्हे किया है चित्रित इसी लिए हो कर यो तन्मय । (१०८) यह तो उनके पुण्य-चित्र का लौकिक अर्थ बताया मैने, किन्तु अलौकिक भाव लिए है यह जो चित्र बनाया मैने, उनको भी सुन लो, रिपुसूदन, यह है अरण्यको की वाणी" 'कहो पुण्यदा मेरी भाभी, कहो कहो रानी कल्याणी ।" १०४