पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सर्ग (१०६) 'आय-धर्म के आचार्यों ने सृष्टि तत्व है खोज निकाला, एक सूत्र मे उन ने गूंथा है सुगूढ वह तत्व निराला मैं हू एक, किन्तु प्रजनन के हेतु अनेको रूप बना हूँ, अमित विरोधाभासो का मै अद्भुत पुज अनूप बना हूँ। (११०) इसी दशा की पुन प्राप्ति की उत्सुक अाकाक्षा अकित है, अत समझते हो तुम, इसको कि यह प्राकृतिकता-वचित हैं त्रेतायुग के सभी शिकारी घोडे पर चढ कर जाते है, पर मम क्रीडात्सुक निस्साधन विचरण मे ही सुख पाते है । (१११) साधन हीन, स्वप्न से जागृत, जीवात्मा की यह यात्रा है, इस मे स्वामी के उस मृग के दर्शन की उत्सुक मात्रा है, इसीलिए, देवर, इनका है टूटा धनुष, रिक्त है तरकस, इन का जीवन ढरक रहा है उन अलक्ष्य चरणो मे बरबस (११२) यो कह सती ऊम्मिला चुप हो रही कुहुकिनी नव कोकिल-सी, और, लक्ष्मणानुज की आँखो मे झलकी लडियॉ झिलमिल-सी, उन ने उठ कर, भक्ति-प्रेम से आर्द्र हृदय की झारी लेकर, ढरका दी चरणो मे । शिर पर छए उम्मिला-ऊषा के कर । (११३) इतने ही मे सस्मित-वदना शान्ता देवी भीतर आई , रिपुसूदन को देख उम्मिला-चरणो मे कुछ समझ न पाई बोली-"जाने क्या जादू है इन बालाओ मे मिथिला की ? रघुकुल के लालो को क्षण मे बाँध, बुद्धि उनकी शिथिला की ?" +