पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जम्मिला + (११४) श्री ऊम्मिला उमॅग कर बोली-“ननदी जीजी, तुम हो भोली, पहले से तुम तो प्राचार्यों के सँग करती रही ठठोली ब्राह्मण ये क्या जाने ? जादू क्या होता है ? कैसे चलता? व तो तभी समझ पाते है जब वह उनको सहसा छलता । (११५) यज्ञ कराने के मिस आये भोले एक ब्राह्मण कोरे, यहा दाशरथिनी ने उनके ऊपर डाले अपने डोरे, अब तो मेरी जीजी को बस मन्तर-जन्तर सूझ रहा है, क्यो, हे ठीक बात मेरी यह ? लो, कुछ अनुचित नहीं कहा है।" (११६) “दुलहिन रानी, तत्वज्ञानी श्री विदेह की सब कन्याये- कैसे सीख सकी चतुराई, बोलो तो ये सब धन्याए क्या विदेह रानी ने कोई पाल रखा है, अहो, चतुर नर जो इन सब को कुशल कला की दीक्षा देता रहा निरन्तर?" ? ? "शान्ते, जीजी, विदेह के घर, द्वार बुहारे है चतुराई, अपनी चिन्ता करो, न पूछो कि यह चतुरता कैसे पाई, कई वेदवित् बैठे रहते उनकी द्वार-देहली पर नित, मॅनदोई भी वही न पहुँचे हो कर तुम से कही उपेक्षित ?" (११८) यो भावज की और नॅनंद की मीठी-मीठी बाते प्यारी- होने लगी । हरी हो आई वाक्य-चतुरता की नव क्यारी । पूर्ण विश्व की मृदु वत्सलता और सुघडता, अहा, सिंहाई, आई वह दशरस के घर में, सम्भाषण म रही समाई ।