पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२९

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द्वितीय सर्ग JI (७) र रहे थे लक्ष्मण-"मा, तुम्हे- दाचित होगा कम विश्वास , कन्तु सुन लो, ऐसी है बात- म्हारी पुत्र बधू की खास , सुमित्रा बोली उन से, "लखन- कह रहे श्रुतकीरति की बात "नही, मा, इनकी, ये जो खडी- तुम्हारे आगे हो नत माथ ह रही थी कि अयोध्यावास, झे है असहनीय अब और, योकि मा श्वश्रू के वात्सल्य-- र का मैने पाया छोर ।" ?" > लखन के सुन ये बचन समोद, पाणि-पल्लव से अपने खीच ,- सुमित्रा ने सस्मित ली बिठा जम्मिला को गोदी के बीच , ख उनके प्रोष्ठो की रेख, हा थी लज्जा कुछ, कुछ कोप, मित्रा बोली हंस कर, किन्तु, खन लाला पर कर आरोप, "बडे हो तुम धनुधारी वीर, खडे हो लेकर मेरी प्रोट, और मम सुत-कान्ता पर आज कर रहे हो यो कर्कश चोट ।