पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१३५

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द्वितीय सर्ग 1 श्रा (१६) आज यह गगन नृत्य कर रहा, थिरकती है अवनी मोहिता , नृत्य के क्रम से होकर थकित, दिशाएँ है आठो लोहिता हिलोरे लेता प्रानन्द, रास क्रीडा अद्भुत हो रही , नृत्य-कम्पन से कम्पित हुई- रजकणो की जडता खो गई , वसतागम को सँग-सँग लिए, गए लक्ष्मण उपवन-गेह, वन-श्री को हुलसाती आज ऊम्मिला आई है सस्नेह । (२०) देह धारण कर राग सुहाग- विचरता है । वन की वीथियाँ- फुल्ल कुसुमो से सज्जित हुई, नेह की दरसाती रीतियाँ, नीतियाँ मोड-मोड मुख चली, प्रेम की नीति धरे सिर ताज- आज वन में विचरण कर रही, एक छत्रा करती है राज, टूट गिर पडे लाज के दाम, काम का हुआ न किन्तु प्रसार, पचशरकर क्या सकता वहा जहा है लखन-म्मिलागार । १२१