पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६२

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ऊम्मिला (७३) हृदय-मन्थन की मधुरी पीर,- झिझकती हुई कसक की याद,- सहमती हुई लजीली हँसी,- अनमनी सी कुछ-कुछ फरियाद,-- छुप गई ये सब, हो कृतकृत्य, पूर्णता के अन्तर मे आज, ऊम्मिला-लक्ष्मण के खुल गए- द्वैत के सब गुण-बन्धन-साज, लखन के धन्वा की टकार- ऊम्मिला की नूपुर-भकार, अवश उत्कम्पित करने लगी- चिरन्तन "एकोऽह" के तार । (७४) ऋमिक गति से जब मन्थन-दण्ड प्रथम परिचालित होता जाय, तभी तक मिलता गति-प्राभास, कि जब तक गति धीमी, निरुपाय, किन्तु जब मेरु दण्ड हो जाय- महद्गति-उत्प्राणित गति-रूप,- कौन तब कह न उठे-हा, यहा अगति भी गति का है प्रतिरूप , है--उसके पार, स्थैर्य, गति, एक रूप बन रही, एक सीमा है.--उसके पार न "तू" है कही, न “मे” हू कही। एक सीमा