पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६५

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द्वितीय सर्ग जगत्-तोषक सकल-विप्लावक उनकी शान्ति, चराचर पोषक उनका स्नेह, उनका सुप्रसाद, प्रणय उनका गम्भीर विदेह, शिथिलता, परम तुष्टि की, लिए,-- निखिलता, चरम सिद्धि की, साथ, ऊम्मिला-लक्ष्मण ने कर दिया- प्रणय के प्रण को आज सनाथ, समर्पण कुछ ऐसा हो गया--- चढी हिय की भेटे नित नई, मगन-मन-दीप-शिखा जग गई, लगन कुछ ऐसी ही लग गई। (८०) हिये आलोकित जगमग ज्योति, 'नेगते सा उपमा सुस्मृता, हुमा मानस मडल' निर्धूम, दिशाये रही न मेघावृता, हट गये, सशय के सब अभ्र- फट गये, था निर्मल आकाश, छंट गए छायामय सब विघ्न, कट गए आत्म-दैन्य के पाश , हुआ जीवन-मग मे आलोक, राज-पथ सँकडी गलियाँ बनी, ऊम्मिला को जीवन-पथ बीच लिए जा रहे अम्मिला-धनी । 7