पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७९

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द्वितीय सर्ग + १ कलम, कल्पने, मति-गति मेरी, कर अब कुछ विश्राम , चल, कर लखन-म्मिला चरणो मे तू पूर्ण-प्रणाम, खूब किया जो लीला-वर्णन तू कर चुकी अथकिते, खूब किया जो यह कह डाला, अरी चमत्कृत चकिते, पर मन मे अभिमान न करना, 'मेरी कठिनी भोली, कथित हुई ऊम्मिला-कृपा से यह गाथा अनबोली । २ अरी कल्पने, अब चलना है आगे वन निर्जन मे,- तुझे घूमना है बरसो तक उस अति सघन विजन में, विधवा अवधपुरी मे विधुरा विमल ऊम्मिला रानी- बहा रही होगी लोचन से अपने हिय का पानी, उनके भी दर्शन करना है, अरी निष्ठुरे तुझको, आज लिए चल अपने सँग तू इस कठिनी को, मुझको । ३ मा, ऊम्मिला निभावे तुझको, खोले तेरे नैन, अपनी करुणा से वे भर दे तेरे तुतले बैन, अन्तर की धडकन को, हिय-तडपन को, मन-फॉसी को, सजनि, आत्म-कपन को दिखला दे सनेह-गॉसी को, कुछ ऐसी रस-धार बहा दे अरुण-करुण रस-माती,- कि बस जगत की सकल धीरता बहे विकल उतराती। १६५