पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८२

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ऊम्मिन्ना 1 कौन आर्य रानी न कहेगी कि हाँ मुखेन कहो, स्वाहा 1 राज, भोग, सुख, सब अर्पित हो लक्ष्य-प्राप्ति के हित, आ हा इस स्वाहा | स्वाहा । मे कितना गौरव है, कितना बल है? आत्मदान की चरम वेदना- मे भी प्रिय, कितनी कल है। मानवता की पाद-पीठ पर तुम को न्यौछावर कर के, रो लेग ऊम्मिला तुम्हारी, चुपके-चुपके, जी भर के । यहाँ वेदना देते, जग को- निर्मल ज्ञान-दान देते, तुम जाओ, चलती वेला, हँस- मुझको प्राण-दान देने, प्रिय, हिय निश्चय धडक उठे है, सोच-मोच यह अवधि बडी, मुरझाने लगती है आशा सूने मग में खडी-खडी, पर, इस से क्या ? बडा पुरातन यह जीवन-युद्धस्थल है, जाओ, मेरे प्राण, ऊम्मिला- सदा तुम्हारी अविचल है ।" २६८