पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३०

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ऊम्मिला २६२ करुणा, दया, तितिक्षा, सेवा, ये सब तब हिय-सगिनियों, मौन-वेदना, धीर-सान्त्वना है तव तन-मन रजिनियाँ, तुम विरागिणी, भक्ति-रागिणी तुम हो मूर्तिमती क्षमता, तुम सनेह-रस-धारा हो, मों, तुम हो वत्सलता, ममता, कैसे तुम से कहूँ कि वन को जाने दो सिय-राम-लखन तो नहीं कहूँगा, मॉ, हो चाहे पितुराज्ञा-लधन । ? २६३ यदि तुम चाहो, तो पितुराज्ञा क्या? जगपति की आज्ञा को- राम करेगा लघित, सब को, दश सहस्र पितुराज्ञा को, जननी तव सकेत मात्र ये सब धर्म-कर्म-बन्धन,- उन्मूलित कर सकता हूँ मैं, कर सकता इनका भजन ।" "बस, बस, मेरे वत्स," सुमित्रा- माता तब यो झट बोली, ज्यो आतुर अभिव्यक्ति-भाव ने निज स्वर-मजूषा खोली।