पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३४४

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ऊम्मिला ३२० "ओ माँ ॥ अश्रु सनी सीता यो और दूसरी 1 वोली व्यथा भरी वाणी, 'दवि, चिरन्तन सहन गीलता की तुम हो चिर गुर्वाणी, यो निज प्रात्म-प्रडतान कर के मुझको तुम लज्जित न करो, मो मॉ, गहरे व्यथा-सिन्धु मे मुझे और मज्जित न करो, इस अस्थिरतामयी अवध मे तुम हो एक, स्थिरा, अचला, कोणत्या मॉ, है धृतिमती निपट अटला २१३ यह कोसल जन-पद जहाज है क्षुब्ध वेदना सागर पार लगाने वाला तुम द्वय- का यह हिय करुणाकर है, तुम हो करुणामयी धीरता ज्ञान - विदग्धा, तव पद-नख पर स्वय तितिक्षा- न्यौछावर मनस्विनी, पूज्य श्वसुर की दशा बडी ही चिन्तनीय हे माता, केवल तव धीरता बन रही है सब को चिन्ता-त्राता। तपस्विनी,