पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुथ सर्ग 3 छानी-छानी, आई। जग भूल सुन रहा जगत है कब से युग-युग की व्यथा-कहानी, कब से मँडारती है यह, आतुरता उद्भ्रान्त वृत्तियाँ गया अपने को, पागल-सा फिरता, जब से- सच्चा समझा सपने को, अपने को सपने में खो, लुट गया जगत मतवाला, चढ गई बहुत ही गहरी अस्तित्त्व-रूप की हाला 1 जपना। है बस, इतनी चेतनता वह ढूढ रहा धन अपना, है भूला नहीं अभी तक अज्ञात का इस मद मे भी तो उसको वेदना सताती रहती, भटकाती है वह निशि दिन, अन्तस्तल रहती दहती पीतम के इस बिछुडन की, वेदना बड़ी गहरी है स्वप्निल अतीत की सस्मृति, आकर्षक है, जहरी है । 1 3