पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अम्मिला मेरी हलकी चुनरिया, रॅगी तिहारे रग, देखहु, इत-उत चुअत है, अरुणा करुण उमग । ४४ रेग्यो-ग्यो-सो लगि रहो, नभ को नील दुकूल, पवन उडावत जात ये, मेघ खड के तूल । ४५ नील-गगन-हिय में उडे, दल बादल के ठाट, यो सकत्पन को उडत , हिय बिच धूम्र विराट । कबहुँ-कबहुँ बदरान के, वक्षस्थल को चीर, दिनकर प्रकटत, ज्यो प्रकट होत हिये की पीर । ४७ मे पाय, गग-जमुन ज्यो मिलत है, श्री प्रयाग त्यो अँखियन की दोउ नदी, अक मध्य मिलि जायँ । ४८ सिसक-लहर, हिचकी-भवर, प्राह भई कल नाद, नयन---द्विवेणी ते उमडि, छलक्यो फेन-विषाद । ४०६