पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३६

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ऊम्मिला निशि ते दूनी प्रात मे, बढत विरह की पीर, दिन ते दूनो, रात मे जियरा होत अधीर । सोरठा सूरज बस पतग, उदित होउ मम गगन में, हुलसावहु अंग अग, कोमल दृढ कर-परस ते । बही जात जीवन-नदी, सही न जात उपाधि, कही जात मुख नै न कछ , या प्रवाह की व्याधि । १४२ निकसी उद्गम ते, लिए हिये अमन्द उमग, लहर चुनरी पै चढ यौ, नव प्रवाह को रग । १४३ छलकि बही कल गीत तै, प्रीति अतीत पुनीत, द्रुत गति मे प्रकटी झलकि उत्कठा की रीत । 'पिता-वश, पति-वश, इन द्वै जीवन-तटिनी बहि रही, बिरह-पीर-जल सीच । कूलन के बीच, ४२२