पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६१

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पचम सर्ग २८६ अब तो सूनी कुज पै करहु कृपा की कोर, छिटकि खिलहु निशि-नाथ-से लै के आत्म-विभोर , २६० सघन कुज की गलिन मे, आवहु खेलहु खेल, करहु सनाथ छुवाय पद मेरी जीवन-वेल । २६१ अॉख मिचौनी मिस दुरहु उझकि-उझकि द्रुम-प्रोट, कछ कॉकरिया-सी चुभ, देहु सैन की चोट । २६२ मेरी झीनी चुनरिया रंगी तिहारे रग, हो रति, तुम दूलह बने मेरे नवल-अनग । २६३ बैठि रहति है मन-लगन, हिय कुटीर के द्वार, नेह-मगन जोहत रहत, निशि-दिन पथ तिहार । २६४ पक्ष्म-लोम-सम्मानी, लोचन भारी पूर्ण, झारत, सीचत रहत नित, पथ-मृत्तिका चूर्ण ।