पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६४

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ऊम्मिला ३०७ प्रेम-विरागी, प्रेम-यह चिर अनुराग अतीत, प्रेम-अह विस्मरणमय, आत्म-स्मरण पुनीत । ३०८ प्रेम-नेम की प्रेम-हेम इव निठुरता, प्रेम-छम-उपहास, शुद्धता, प्रेम-कसौटी-त्रास ! २०६ प्रेम-सस्मरण नाम को, प्रेम-सुकीर्तन-भाव, प्रेम-चरण सेवा विकल, प्रेम-अर्चना-चाव । मन मोती को खोइबो, नित्य ठगैबो प्रान, अनबोले सहिबौ बिथा, यहै प्रेम की कान छाडि धर्म की व्याधि सब, छाडि सुकर्म उपाधि, अव्यभिचारी नेह की, रहौ साधना साधि । ३१२ नेह-भक्ति-बन्धनन मे, मोहि मिलि मई मुक्ति, भली हाथ सहसा लगी, यह समाधि की युक्ति । ४५०