पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६३

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पचम सर्ग ३०१ प्रेम-बन्यो अस्तित्व की सार रूप मनुहार, प्रेम-दरस की प्यास है, उत्कठित अभिसार । ३०२ प्यास, प्रेम-मौनमय वेदना, प्रेम-प्राण की प्रेम-हिये मे रोइबो, अधरन मे कछु हास । ३०३ प्रेम-सृष्टि की परिधि को केन्द्र-विन्दु सुकुमार, प्रेम-पुरातन हिय-कथा, प्रेम-हिये की हार । ३०४ हिय-व्रण नित्य दुराइबो, कहिबो कछु न बनाय, प्रेम-नेम की रीति यह, रहिबो मन समुझाय । ३०५ कहा भयो जो छाडि के चले गए हृदयेश ? प्रथा सनातन प्रीति की, पालत है प्रेमेश । प्रेम-चिरन्तन विकलता, प्रेम-चिरन्तन आह, प्रेम-सतत अवहेलना, प्रेम-दरस की चाह ।