पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७४

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जम्मिला लै शूची परिहास की, ललित केलि को तार, भेदि छेदि, करि मृदु चयन, करहु पुहुन निरवार । ललित, कलित, कोमल, मदिर, मधुर सुमन की गन्ध, फैलि रही उद्यान बिच, अहो जीवनानन्द 1 हिय सिहाय, इत आय, पिय, माला मृदुल बनाय, पहिरहु पहिरावहु बिहॅसि, मन-मन मे हरषाय । ३७० आत्म-निवेदन-सुमन को, पिय, करिये स्वीकार, हरिये इनकी उल्लसित उत्कठा को भार । सोरठा ? असमर्पित रहि जाय, क्यो विकास-अस्तित्व यह आवहु मान बिहाय, नयनन मे स्वीकृति लिए । ३७२ देखि व्यर्थ श्रम आपुनो देखि शून्य उद्यान, छिन-छिन मे अकुलात है, मन-माली अनजान ।