पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७७

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पचम सर्ग सोरठा द्रुम-वल्लरी अधीर, वन्यौ निराश्रित हृदय मम, निरलम्ब की पीर, आश्रय दै, हरि लेहु , पिय । ३८६ मानस-नभ मे दूर लौ, चढी कल्पना-चग, लप-झप लप-अप करि रही, यह अनुरक्त पतग । ३८७ नेह-डोर-अवलम्ब लै, चढी चग आकास, ठुमकत, सर-सर करत नित, बढी जान मायाम । ३८८ लगन-मगन मन-गगन मे, लहरत इत-उत धाय ठहरि-उहरि भाजत, मनौ, कोउ कछु ढूंढत जाय । तुमहि ढूंढिबे यह चली, बॅधि सनेह की डोर, उत्सुक आकुलता लिए, लहरत कैंपत अथोर । ३६० ठुमकावहु यह चग, पिय, श्री कर में गहि डोर, याहि डुलावहु हरषि हिय, मन-नभ बिच चहुँ ओर ।