पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८१

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पचम सर्ग ४१० तुम अनादि, नाश्वत, सजन, अन्तहीन मम श्राम, उत अनादि मय ध्येय मम, इने अनन्न प्रयाम । तुम अनन्त आकाश, प्रिय, हौ अछोर नभ-गग, तब वक्षस्थल पर उठत, मम उत्ताल तरग। ४१२ तुम प्रकाश के पुज प्रिय, हौ लघु किरण निहारि, हौ तव चिर अनुगामिनी, आज रही हिय हारि । ४१३ तुम सगीत स्वरूप नित, हौ स्वर श्रुति लघु एक, तुम बिन किमि निबहै, सजन, मम मदुला स्वर-टेक ? ४१४ गहर गभीर समुद्र तुम, हौ लघु वीचि-विलास, तुम न करहु जो कछु कृपा, तो कित कल उत्लास ? ४१५ गुंजि रही मन-गगन में, पिय, करहु नैन नाराच ते तव धनु-टकार, वियोग-सहार। मम ४६७