पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८२

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अम्मिला ४१६ कब लौ ? यो मन बावरो, पूछि रह्यो अकुलाय, तब लौ, जब लौ काल को, चलन-कलन मिट जाय ? ४१७ रे मन, नेह निबाह को, पन्थ अगम्य, अनन्त, या मारग को होत है, कहु, कब, केहि विधि, अन्त ? ४१८ नित सँजोग मे रहत, सदा पियासे प्रान, सतत चटफ्टी ही अहै, शुचि सनेह वरदान । ४१६ शारदीय नभ, नील तुम, नेह-सुपूरन-इन्दु, आकर्षित हहरात मम वय अगाध हिय-सिन्धु । ४२० तुम आकाश असीम, हौ उदधि ससीम, गभीर, मेर बनी तुम लौ गई, मम उसास की गोर । ४२१ नित जप, नित तप, ध्यान नित, नित पिय चिन्तन-योग, नित्य नाम को सस्मरण, यो हो कटत वियोग ।