पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८३

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पचम सर्ग ४२२ निमि-दिन चहकत रहतु है, यह मेरो मन-कीर, कव अइहै जीवन धनी, निपट धनर्धर, धीर ? ४२३ वे मॅजोग के सस्मरण, अजहूं बने नवीन, बीते युग-युग सम बरस, तऊ भए ना छीन । पैनी-पैनी दुख-अनी, अरु पैनी व जात, ज्योज्यो बीतत दिवस ये, ज्यो-ज्यो बीतत रात । ४२५ जो न पावती प्रीति को, यह वेदना प्रसाद, तो किमि सुनि सकते श्रवण, अनहद नेह-निनाद ? ४२६ विफल मनोरथ-तृणन सो छाई हृदय-कुटीर, तृणन्हि उडावत' जात यह, विथा-वायु गभीर । ४२७ निर्जनता नीकी लगत, कोलाहल न सुहाय, जन-सकुलित प्रदेश तै, चित्त उचटि अकुलाय । ४६६