पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६१२

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अम्मिला ध्यान ? पाई हो ऊम्मिला-विस्मरण, कैसे छूटे उसका उसका सत्य सनेह बना है मम आत्मोन्नति का सोपान, उसके सन्नेहाश्रय से ही मेन मुक्ति भली, उसके एक सहारे से ही तप-साधन-बेलि देवि, ऊम्मिला ने ही दी है, चिन्तन एकाग्रता यहाँ उसके बिना भटकता फिरता मन ना जाने कहाँ-कहाँ ? फली, १६२ मुझे परमपद की समीपता, स्नेहमार्ग से मिली भली, भाभी, अब वह द्वन्द्व-रूपिणी, मन भावना टली, दूर-पास का भेद मिट गया, दाह मिटा, हिय मे पिय रम गए लखन के, आतुर नैन - प्रवाह छटा निखर आई जगती की, उसका वक्र कुरूप मा, जगत ऊम्मिला-मय सनेह-मय, चिदानन्द धन रूप हुआ दर्शन - उत्सुक - मिटा, ५१०